– प्रदीप चंद्र जोशी
आज राग दरबारी पढ़ते हुए, अचानक हिंदी, किताब से बाहर आ गयी। बाहर निकल पीले रुंधे हुए पन्नों पर बैठ गयी। पहले तो मैं केवल राग दरबारी पर ध्यानमग्न रहा, किन्तु जब हिंदी ने दो बार मुझे घूर कर देखा तो “निज भाषा सम्मान” के कारण मुझे ध्यान उसकी ओर ले जाना पड़ा।
तो मुद्दा ये था कि उसे उड़ते उड़ते ये ख़बर आयी कि आज उसका दिन है। उत्सुक्तावश बाहर आ गयी, गली कूंचों से बच बचाकर मेरे सामने जब अजीब असमंजस में दिखी तो मैंने पूछ लिया, “कैसे आना हुआ?” “सब ठीक ठाक?”।
वो तो भरी बैठी थी, सुनते ही चुहँक गयी, कहती ” ठीक ठाक? मुझसे सवाल करते हो? पूछते हो कैसे आना हुआ? याद है आखिरी बार कब मुझसे हाल पूछा था? याद है मुझे अंतिम बार चंद्र बिंदु से अलंकृत किया था? और ये तो कतई याद नहीं होगा कि मुझे जानते हो? पता पूछा कभी अर्ध विराम से?”
मैनें कहा ” यार, बिफर क्यों रही हो? तुम तो मृदुभाषी हो, विचाराधीन होकर ही बात करती हो, नाराज़ क्यों होती हो?
माना तुमसे मिलना साल में केवल एक बार ही हो पाता है, लेकिन टूटे फूटे अंश तो रोज़ ही मिल जाते हैं। कई बार दोस्त अंग्रेजी अखबारों में विज्ञापनों में दिखती हो, और मेट्रो में तो हमेशा ही मिल जाती हो”।
इस बात से हिंदी का तमतमाया मुखड़ा थोड़ा झुक गया,बोली, “तुमने मुझे एक विशेष वर्ग, दिन और स्थान के लिए छोड़ दिया है”।
मैनें बात को संभालते हुए कहा “देखो यूं हताश न हो, तुंम्हें लेकर कई चर्चाएँ होती हैं, बड़े बड़े विशेषज्ञ तुम्हारे लिए काम पर लगे हैं। सरकार ने तक तुंम्हें सर्वव्यापी बनाने की जुगत शुरू कर दी है”।
भौहें तिरछी कर के बोली, “मुझे किसी पर थोपो मत! स्वेच्छा से जो चाहे अपना ले”।
कहती “साल में एक दिन रख लो, मेरा इससे काम नहीं चलेगा। नाही मुझे ऐसी कोई चाह है कि हर जगह याद किया जाए।
मुझे चाह है कि मुझे मेरी सुंदरता से अलग न किया जाए। जो मेरी सुंदरता को समझते हैं, मेरी श्रृंगार को जानते हैं या जाने की इच्छा रखते हैं, वो मुझे अपनाए।
और सबसे महत्वपूर्ण बात कि मुझे और मेरी सुंदरता को सबके स्तर पर न ले जाकर, सब को मेरे स्तर पर लाया जाए।
और ये जो मुझे मेरे स्तर से सब तक पहुँचाने के लिए मुझे आधुनिक हिंदी बनाने का प्रयास चल रहा है न, इससे मेरी सुंदरता बिगड़ रही है।
जानती हूं निराला, पंत, प्रसाद जैसे रसकार नही मिलेंगे, लेकिन प्रेमचंद जैसी तो कुछ कोशिश करो।
ये सब कह कर हिंदी उड़कर धेली पर बैठ कर, वियोग विरह से अश्रुपूरित नयनों से देखते उड़ गई, मुझे अवाक छोड़ कर।
#हिंदीदिवस शुभकामनाएं

प्रशंशनीय लेख, भाषा की भावना को अच्छे से व्यक्त किया है।
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